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प्रेम चतुर्थी (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8580
आईएसबीएन :978-1-61301-178

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बाबू–उन लोगों को रुपया का गरज नहीं। चिट्ठी का जवाब नहीं देता।

साईंदास–अच्छा, नागपुर की स्वदेशी मिल को लिखिए।

बाबू–उसका कारोबार अच्छा नहीं है। अभी उसके मजूरों ने हड़ताल किया था। दो महीना तक मिल बंद रहा।

साईंदास–अजी तो कहीं लिखो भी, तुम्हारी समझ में सारी दुनिया बेईमानों से भरी है।

बाबू–बाबा, लिखने को हम सब जगह लिख दें, मगर लिख देने से तो कुछ लाभ नहीं होता।

लाला साईंदास अपनी कुल-प्रतिष्ठा और मर्यादा के कारण बैंक के मैनेजिंग डाइरेक्टर हो गये थे, पर व्यावहरिक बातों से अपरचित थे। यही बंगाली बाबू इनके सलाहकार थे, और बाबू साहब को किसी कारखाने या कम्पनी पर भरोसा न था। इन्हीं के अविश्वास के कारण पिछले साल बैंक का रुपया सन्दूक से बाहर न निकल सका था और अब वही रंग फिर दिखायी देता था। साईंदास को इस कठिनाई से बचने का कोई उपाय न सूझता था। न इतनी हिम्मत थी कि अपने भरोसे किसी व्यापार में हाथ डालें। बैचेनी की दशा में उठकर कमरे में टहलने लगे कि दरबान ने आकर खबर दी, बरहल की महारानी की सवारी आयी है।

लाल साईंदास चौंक पड़े। बरहल की महारानी को लखनऊ आये तीन-चार दिन हुए थे, और सबके मुँह से उन्हीं की चर्चा सुनायी देती थी। कोई पहनाव पर मुग्ध था, कोई उनकी सुन्दरता पर, कोई उनकी स्वच्छंद वृत्ति पर। यहाँ तक कि उनकी दासियाँ और सिपाही आदि भी लोगों के चर्चा-पात्र बने हुए थे। रायल होटल के द्वार पर दर्शकों की भीड-सी लगी रहती। कितने ही शौकीन, बेफिकरे, इतरफरोश, बजाज, तम्बाकू-गर का वेश धर कर उनके दर्शन कर चुके थे। जिधर महारानी की सवारी निकल जाती, दर्शकों के ठट्ट लग जाते थे। वाह-वाह, क्या शान है! ऐसी इराकी जोड़ी लाट साहब के सिवा किसी राजा-रईस के यहाँ तो शायद ही निकले, और सजावट भी क्या खूब है! भाई, ऐसे गोरे आदमी तो यहाँ कभी दिखाई नहीं देते। यहाँ तो धनाढ्य मृगांक और चंद्रोदय और ईश्वर जाने क्या-क्या खाक-बला खाते रहते हैं, परन्तु किसी के बदन पर तेज या प्रकाश का नाम नहीं। यह लोग न जाने क्या भोजन करते और किस कुएँ का जल पीते हैं कि जिसे देखिए ताजा सेब बना हुआ है! यह सब जलवायु का प्रभाव है।

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